आज का भारत एक नए दौर में प्रवेश कर चुका है। यहाँ अदालतें ex parte आदेश देती हैं, सरकारें उन्हें लागू कराती हैं, और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पत्रकारों और क्रिएटर्स को मेल भेजकर धमकाते हैं — “वीडियो खुद हटा लो, वरना हम हटा देंगे।”

ताज़ा मामला अदाणी समूह से जुड़ा है। दिल्ली की एक अदालत के आदेश के बाद सूचना मंत्रालय ने 138 यूट्यूब वीडियो और 83 इंस्टाग्राम पोस्ट हटाने का निर्देश दिया है। इस सूची में न्यूज़लॉन्ड्री और द वायर जैसे संस्थान हैं, तो वहीं ध्रुव राठी, अजीत अंजुम, आकाश बनर्जी, अभिसार शर्मा और रवीश कुमार जैसे स्वतंत्र पत्रकार भी शामिल हैं।

सरकार का तर्क है — “यह हमारा आदेश नहीं, कोर्ट का है। हम तो केवल लागू कर रहे हैं।”

लेकिन सवाल यह है कि क्या पत्रकारिता को चुप कराने का रास्ता इतना आसान होना चाहिए?

लोकतंत्र के लिए ख़तरे की घंटी

इस पूरे प्रकरण में सबसे बड़ा संकट अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर है।

  • अदालत ने ex parte आदेश दिया — यानी पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को अपनी बात रखने का मौका ही नहीं मिला।
  • हटाए जाने वाले वीडियो सिर्फ खोजी रिपोर्ट ही नहीं हैं, उनमें व्यंग्य, संदर्भ और सामान्य चर्चाएँ भी शामिल हैं।
  • नतीजा यह कि पत्रकार और यूट्यूबर अब आत्म-सेंसरशिप की ओर धकेले जा रहे हैं।

यह सब मिलकर एक डरावना संकेत देता है: लोकतंत्र में सत्ता और कॉरपोरेट की आलोचना अब “मानहानि” के दायरे में लाई जा सकती है।

यह पहली बार नहीं
  • 2023 में BBC की डॉक्यूमेंट्री पर यही नियम लागू हुआ।
  • किसान आंदोलन के दौरान कई ट्वीट्स और हैशटैग हटाए गए।
  • पेगासस जासूसी रिपोर्ट्स को दबाने की कोशिश हुई।

हर बार एक ही पैटर्न दिखता है — सरकार कहती है कि यह कानूनी कदम है, लेकिन असल में आलोचनात्मक कंटेंट को ही निशाना बनाया जाता है।

लोकतंत्र का असली सवाल

एक मज़बूत लोकतंत्र की खूबी होती है कि वह आलोचना सह सके। लेकिन आज स्थिति उलटी है — आलोचना करने वाले को ही अदालत और मंत्रालय घेर लेते हैं।

क्या यह वही भारत है जहाँ प्रेस चौथा स्तंभ कहलाता था?

क्या यह वही लोकतंत्र है जो दुनिया को अपनी “विविधता और खुली बहस” पर गर्व से परिचित कराता था?

अगर अदाणी जैसे कॉरपोरेट समूह पर सवाल उठाना ही अपराध मान लिया जाए, तो फिर जनता को कौन बताएगा कि सत्ता और पूंजी की असलियत क्या है?

आज का दिन सोशल मीडिया पर मज़ाक में “अदाणी वीडियो टेकडाउन दिवस” कहा जा रहा है। लेकिन असलियत कहीं ज़्यादा गंभीर है। यह घटना हमें चेतावनी देती है कि लोकतंत्र की नींव पर टेकडाउन का हथौड़ा चल रहा है।

अगर अभिव्यक्ति का अधिकार धीरे-धीरे “कोर्ट आदेश” और “मंत्रालयी नोटिस” में सिमट गया, तो आने वाली पीढ़ियाँ पूछेंगी —

“क्या भारत का लोकतंत्र सचमुच आलोचना से इतना डर गया था?”

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