अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन द्वारा एच-1बी वीज़ा शुल्क में भारी वृद्धि और ईरान के चाबहार बंदरगाह को दी गई प्रतिबंध छूट (सैंक्शन वेवर) वापस लेने के बाद कांग्रेस ने केंद्र सरकार पर तीखा हमला किया है। विपक्ष का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति भ्रमित और विफल हो रही है, जिससे भारत की अर्थव्यवस्था को गहरा नुकसान हो रहा है।

🔍 क्या हुआ?

  1. एच-1बी वीज़ा शुल्क में भारी इज़ाफ़ा
    ट्रम्प प्रशासन ने एच-1बी वीज़ा के लिए नियोजकों (नियोक्ताओं) पर 1 लाख डॉलर वार्षिक शुल्क लगाने का निर्णय लिया है। यह भारत के सूचना प्रौद्योगिकी और आउटसोर्सिंग उद्योग के लिए बहुत भारी पड़ने वाला है। इस फैसले से छोटे और मध्यम स्तर की प्रौद्योगिकी कंपनियाँ विशेष रूप से प्रभावित होंगी।
  2. चाबहार बंदरगाह की छूट वापस
    अमेरिका ने भारत को ईरान स्थित चाबहार बंदरगाह (शाहिद बेहशेती टर्मिनल) से जुड़ी प्रतिबंध छूट वापस ले ली है। इससे अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया से भारत-चाबहार मार्ग के ज़रिए व्यापार और रणनीतिक कनेक्टिविटी पर असर पड़ेगा।

कांग्रेस की प्रतिक्रिया

  • कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि मोदी सरकार की “व्यक्तिगत कूटनीति” (पर्सनलाइज्ड डिप्लोमेसी) ने भारत को अपने विदेशी हितों की रक्षा में कमजोर कर दिया है।
  • राहुल गांधी ने कहा था की भारत के पास एक कमज़ोर प्रधानमंत्री है, जो अमेरिकी राष्ट्रपति से भारतीय हितों की रक्षा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
  • कांग्रेस का कहना है कि इन कदमों से भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग, विदेश में काम कर रहे प्रवासी भारतीय (एनआरआई), व्यापार और रणनीतिक योजनाएँ प्रभावित होंगी।

असर और महत्व

  • सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग पर आघात: एच-1बी वीज़ा शुल्क में वृद्धि से रोज़गार अस्थिर होगा और अमेरिका-आधारित परियोजनाओं पर काम करने वाली कंपनियों के लिए लागत बहुत बढ़ जाएगी।
  • रणनीतिक व व्यापारिक नुकसान: चाबहार बंदरगाह भारत की मध्य एशिया और अफ़ग़ानिस्तान से व्यापारिक कनेक्टिविटी का अहम केंद्र है; छूट हटने से भारत की भूमिका सीमित हो सकती है।
  • वैश्विक भरोसा और संतुलन: अगर साझेदार देश भारत की नीति को अस्थिर मानने लगें तो कूटनीतिक रिश्तों में खटास आ सकती है।

अमेरिका की इन नई नीतियों से साफ़ है कि भारत को अपनी विदेश नीति में मज़बूत रणनीति, स्थिरता और स्पष्टता की ज़रूरत है। कांग्रेस का आरोप है कि प्रधानमंत्री की कूटनीति में “दिखावा ज़्यादा और ठोस परिणाम कम” रहे हैं, जिससे अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय हित दोनों प्रभावित हो रहे हैं।

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