उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा भारत के सर्वोच्च न्यायालय पर की गई तीखी टिप्पणियों ने देश की राजनीति और न्याय व्यवस्था में एक नई बहस को जन्म दे दिया है। उपराष्ट्रपति ने हाल ही में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बोलते हुए न्यायपालिका की भूमिका पर सवाल उठाए और उसे “सुपर संसद” की तरह कार्य करने वाला बताया।

उपराष्ट्रपति ने कहा, “हमारे पास अब ऐसे न्यायाधीश हैं जो कानून बनाएंगे, कार्यपालिका के कार्य करेंगे और सुपर संसद की तरह काम करेंगे, लेकिन उन पर कोई जवाबदेही नहीं होगी क्योंकि देश का कानून उन पर लागू नहीं होता।” उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 142 को भी निशाने पर लिया, जो सुप्रीम कोर्ट को किसी भी मामले में “पूर्ण न्याय” देने का अधिकार देता है। उन्होंने इस प्रावधान को “लोकतंत्र के खिलाफ 24×7 उपलब्ध परमाणु मिसाइल” बताया।

श्री धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के उस हालिया ऐतिहासिक फैसले पर भी नाराजगी जाहिर की, जिसमें तमिलनाडु के राज्यपाल को समयबद्ध तरीके से निर्णय लेने का निर्देश दिया गया था। उन्होंने कहा, “हमने लोकतंत्र को इस दिन के लिए नहीं चुना था कि राष्ट्रपति को समयबद्ध निर्णय लेने को कहा जाए और अगर ऐसा न किया जाए तो न्यायालय का आदेश ही कानून बन जाए।”

उन्होंने यह भी कहा कि उनकी चिंताएं “बहुत उच्च स्तर” की हैं और उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि उन्हें अपने जीवन में ऐसा दिन देखना पड़ेगा।

उपराष्ट्रपति की इन टिप्पणियों के बाद विपक्ष ने कड़ा विरोध जताया है और कहा है कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सीधा हमला है। विशेषज्ञों का मानना है कि लोकतंत्र के तीनों स्तंभों — विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका — के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक है, और इस प्रकार की बयानबाज़ी से संवैधानिक व्यवस्था को नुकसान पहुंच सकता है।

यह विवाद उस ऐतिहासिक फैसले के बाद आया है जो तमिलनाडु राज्य बनाम राज्यपाल मामले में सुनाया गया, जिसमें न्यायालय ने राज्यपाल की निष्क्रियता पर सवाल उठाते हुए समयबद्ध निर्णय की आवश्यकता बताई थी।

देशभर में अब यह बहस जोर पकड़ रही है कि क्या उपराष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को न्यायपालिका के खिलाफ इस तरह की टिप्पणी करनी चाहिए थी।

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