तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के बीच लंबे समय से जारी टकराव पर सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते और यदि विधानसभा किसी विधेयक को दोबारा पारित कर देती है, तो राज्यपाल को उस पर अनिवार्य रूप से हस्ताक्षर करने होंगे।
मुख्य बिंदु:
- जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की बेंच ने फैसला सुनाते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को सीमित समय में निर्णय लेना होगा।
- विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए 1 से 3 महीने की समय-सीमा तय की गई है:
- हस्ताक्षर न करने की स्थिति में: 1 माह
- राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह के विपरीत रोकने की स्थिति में: 3 माह
- राष्ट्रपति को संदर्भित करने की स्थिति में: 3 माह
- पुनर्विचार हेतु लौटाए गए विधेयकों पर: 1 माह
(ये अधिकतम समय-सीमाएं हैं, कार्रवाई शीघ्र की जानी चाहिए)
तमिलनाडु के लिए बड़ा फैसला:
फैसले के अनुसार, तमिलनाडु के राज्यपाल को अब राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपति (Chancellor) के पद से हटाया गया है।
राज्यसभा सांसद पी. विल्सन ने कहा, “यह फैसला सिर्फ तमिलनाडु नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए लागू होता है।” उन्होंने यह भी कहा कि इससे राष्ट्रपति द्वारा NEET छूट विधेयक को रोके जाने के खिलाफ कानूनी रास्ता खुल गया है।
मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने फैसले को “ऐतिहासिक जीत” बताया और कहा कि यह फैसला सभी राज्यों की स्वायत्तता के लिए एक बड़ा कदम है। विधानसभा में उन्होंने कहा:
“तमिलनाडु लड़ेगा, तमिलनाडु जीतेगा।”
पृष्ठभूमि:
राज्यपाल द्वारा विधेयकों को रोककर रखने का मुद्दा केवल तमिलनाडु तक सीमित नहीं रहा है।
- पंजाब ने 2023 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी, तब तत्कालीन CJI डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा था, “आप आग से खेल रहे हैं।”
- केरल और पश्चिम बंगाल में भी राज्यपालों के इस तरह के रवैये पर सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय लोकतंत्र में संविधान और जनप्रतिनिधियों के अधिकारों की रक्षा में मील का पत्थर माना जा रहा है। यह न केवल राज्यों के अधिकारों को मज़बूती देता है, बल्कि राज्यपाल की भूमिका को भी संवैधानिक दायरे में बांधता है।