सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस के राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ गुजरात पुलिस द्वारा दर्ज प्राथमिकी (FIR) को रद्द करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व पर जोर दिया है। न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने कहा कि न्यायाधीशों का कर्तव्य है कि वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करें, भले ही वे व्यक्त की गई राय से सहमत न हों।

यह मामला प्रतापगढ़ी द्वारा सोशल मीडिया पर साझा की गई एक कविता से संबंधित था, जिसे गुजरात पुलिस ने भड़काऊ मानते हुए उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की थी। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि यह कविता वास्तव में अहिंसा का संदेश देती है और इसका किसी धर्म या राष्ट्रविरोधी गतिविधि से कोई संबंध नहीं है। अदालत ने टिप्पणी की कि पुलिस को प्राथमिकी दर्ज करने से पहले संवेदनशीलता और समझदारी दिखानी चाहिए थी। 

अदालत ने यह भी कहा कि संविधान के लागू होने के 75 साल बाद, कम से कम अब पुलिस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व को समझना चाहिए। न्यायमूर्ति ओका ने कहा कि जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात आती है, तो इसे संरक्षित किया जाना चाहिए। 

प्रतापगढ़ी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने दलील दी कि उच्च न्यायालय का आदेश कानून की दृष्टि से गलत था, क्योंकि न्यायाधीश ने कानून को नजरअंदाज किया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सहमति जताते हुए कहा कि उच्च न्यायालय ने कविता के वास्तविक अर्थ को नहीं समझा। 

इस निर्णय के साथ, सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया है, यह स्पष्ट करते हुए कि भले ही व्यक्त की गई राय से असहमति हो, लेकिन उसे व्यक्त करने के अधिकार की रक्षा की जानी चाहिए।

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